यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, 25 जून 2010

माफिया का मनरेगा


माफिया का मनरेगा
  •  इधर नये ई ई ने कर डाले रिकार्ड टी एस
  •  उधर पंचायतों में साढ़े सात परसेंट टैक्स का खेल

महात्मागांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना माफिया के चंगुल में है। पूर्व कार्यपालन यंत्री के लगातार इंकार से लटके काम नये छत्रप के आने से गति पकडऩे वाले है। आरईएस ने 400 से अधिक टी एस रिकार्ड समय पर कर माफिया की सक्रियता बढ़ा दी है। ग्राम पंचायतों से भारी टैक्स बचा रहा ठेका माफिया मशीनों सेकाम करा कर दोहरा लाभ कमा रहा है प्रस्तुत है एक रिपोर्ट
  महात्मागांधी क े नाम पर चल रहे रोजगार गारंटी से ग्रामीण क ितने लाभाविंत हो रहे है यह तो एक यक्षप्रश्न है पर ठेक ेदार भरपूर लाभ क मा रहे हैं जिले में जनभागीदारी से तालाब खुदाई क े बाद अब ठेक ेदार माफिया ग्रामीण यांत्रिक ी विभाग क े तहत 10 लाख से ऊपर क े क ार्यो क ी सेटिंग में लगे है वैसे भी आरईएस में राजनैतिक दखलंदाजी क े बल पर ही सारा क ार्य होता रहा है पर इस बार नेताओं ने भी नयी रणनीति बना रखी है।

तुम न मानों तो अपना है कायदा, पंचायतों में ज्यादा है फायदा

सूत्रों की माने की आरईएस के तत्कालीन ई ई विजय तिवारी द्वारा मनरेगा की स्वीकृ ति में आनाक ानी क रने पर क ार्यो क ो इस तरह बांटा गया क ि लागत 10 लाख से क म हो जाये इसक े बाद क ार्य ग्राम पंचायतों क े माध्यम से क िये गये। इससे ठेक ेदार ने दोहरा लाभ क माया उन्हें आईटी, एसडी, सीटी और रायल्टी क े रूप में टैक्स क ी बचत होती रही साथ ही गुणवत्ता क े लिए टेसंटिग रिपोर्ट क ी भी आवश्यक ता नहीं होती इससे पूरे क ार्य में लगभग 9 प्रतिशत क ी राशि ऐसे ही बच जाती है। आर ई एस क े क ार्यो में सब इंजीनियर एस डी ओ तथा ई ई क े टेबिल से फाईल गुजरती है जिनक ी अपनी अलग व्यवस्था है इसक े बाद जिला पंचायत से पैसों क ा भुगतान होता है जबक ि ग्राम पंचायत में पैसों क ा भुगतान बढ़ी आसानी से क िया जा सक ता है इसक े चलते क्षेत्र में बड़े छोटे क ई माफिया सरगना पैदा हो गये और उन्होंने जबरदस्त लाभ क माया।

इस बार क ार्यो क ा आबंटन नई प्रक ्रिया से क िया जाना है। सूत्रों क ी माने तो ठेक ेदारों क े विशेष दबाव समूह ने क ार्यो क े पर्याप्त एवं उचित बंटवारे क े लिए सभी वर्गाे क े बीच सामंजस्य बना लिया है। इसक े लिए अब तक ग्राम पंचायतों में क िये जा रहे 10 लाख से नीचे क े क ामों क ा हवाला दिया जा रहा है। ज्यादातर गांवों में ये क ाम विशेष समूह द्वारा क िया गया है इसक े लिए फर्जी मस्टररोल बनाये गये तथा क ाम मशीनों से पूरा क िया गया। जेसीबी, ट्रैक्टर और लेबलर क े खुलक र प्रयोग क िये गये इस सारे खेल क ो ग्राम क े सरंपच, पंच और रोजगार सहायक असहाय से देखते रह गये। वैसे भी संविदा से नियुक्त रोजगार सहायक ों क ा क ोई विशेष उत्तरदायित्व नहीं है न ही क ार्य क ी गुणवत्ता क े संदर्भ में उनक ी क ोई जवाबदारी ही है। ऐसे में माफिया क ा क ाम और भी आसान हो गया। उन्होंने लाभ क माया भीऔर जरूरतमंदों क ो जमक र बांटा भी।

जज के आदेश बंद तो कारिंदों के हौसले बुलंद

जैजैपुर क्षेत्र में एक माननीय न्यायाधीश के स्वविवेक से मनरेगा के भ्रष्ट्राचार पर नियंत्रण की अच्छी कोशिश हुई थी। उस समय लगभग 42 प्रकरण दर्ज कर कार्यवाही की गयी थी। श्रीमान के आदेश के बाद अधिकारियो के हाथ पांव फूल गये थे और कार्यवाही में जिस तेजी का प्रदर्शन हुआ उससे एक बार तो ऐसा लगा था कि शायद मनरेगा ठेकेदार और राजनीतिक माफिया के दबाव से मुक्त हो जायेगा तथा गरीब मजदूरों को उनका जायज हक मिलने लगेगा। लेकिन जैजैपुर के बाद शायद ही किसी न्यायाधीश ने इस पर कार्यवाही की कोशिश की और धीरे धीरे न्यायपालिका भी मौन हो गयी इसके बाद तो मनरेगा में जैसे भ्रष्ट्राचार का तूफान चढ़ आया। आज पूरे जिले में स्थिति चिंताजनक है।


शनिवार, 8 मई 2010

इरिगेशन में जरूरी मेंशन

इरिगेशन में जरूरी
मेंशन

काम के लिए समय सीमा कम होने से नहीं हो पाती प्रतिस्पर्धा
इरिगेशन विभाग में चहेते बड़े ठेकेदारों को फायदा देने के लिए न्यूनतम समय सीमा का जो फार्मूला इस्तेमाल में लाया जा रहा है उससे विभाग को नुकसान होने का कारण निविदा में प्रतिस्पर्धा का नहीं होना है अर्थात न्यूनतम समय सीमा होने से गिनती के ठेकेदार ही निविदा में शामिल हो पाते हैं। दूसरी ओर कम समय में काम पूरा होने से जुड़ा उद्देश्य भी हासिल नहीं हो पाता क्योंकि निर्धारित समय में काम पूरे होते ही कहां हैं! इरिगेशन में न्यूनतम समय का फार्मूला किसने दिया और इससे जुड़ी हकीकत का
सनसनीखेज खुलासा

मिनीमाता बांगो नहर संभाग चॉपा क्र. 2 में नहरों में लाईनिंग के पुराने काम जिसकी अनुमानित लागत 184.49 लाख है की आमंत्रित निविदा जो 5 अप्रैल 2010 को की गई है में काम के लिए समय सीमा 6 माह है। लाईनिंग के इस बड़े काम में समय कम होने से गिनती के ठेकेदार ही योग्य हुए हैं अगर समय ज्यादा होता तो ठेकेदारों की बड़ी संख्या निविदा में होती जिससे प्रतिस्पर्धा का फायदा सिंचाई विभाग को मिलता इसे अधिकारी बेहतर समझते हैं लेकिन उन्होंने तथ्यों पर गौर करने की बजाए न्यूनतम समय सीमा के फार्मूला पर सहमति जाहिर कर इस व्यवस्था को लागू करने में भूमिका निभाई है तो इसके पीछे गिनती के ऐसे बड़े ठेकेदारों को लाभ देना है जो उनके करीबी हैं या एक तरह से समय सीमा के इस विशेष फार्मूला ने अधिकांश ठेकेदारों को प्रतिस्पर्धा से बाहर कर दिया है। इस बारे में प्रभावित ठेकेदारों का कहना है उन्हें दिक्कत इस न्यूनतम समय सीमा की व्यवस्था पर नहीं वरन नाराजगी इस बात को लेकर है कि काम जल्दी हो सके इस उद्देश्य से लागू की गई मिनिमम टाईम लिमिट पद्धति कामयाब नहीं होने के बाद भी प्रभावशील है अर्थात जब समय पर काम हो ही नहीं रहे हैं तो इस प्रणाली का क्या मतलब! नहरों में लाईनिंग का पुराना काम पूरा करने के लिए 6 माह का जो निर्धारित समय दिया गया है उसमें काम हो पायेगा इसको लेकर उठ रहे सवालों में दम मालूम होता है क्योंकि 5 अप्रैल 2010 को जो टेंंडर लगा है वह 4 जून को खुलेगा और मुश्किल से पखवाड़े भर बाद बरसात लग जायेगी कहने का मतलब 15 जून से नहरों में पानी छोड़ दिये जाने के बाद नहरों में पूरी बरसात काम नहीं हो सकेगा तो फिर निर्धारित समय सीमा में लाईनिंग का लक्ष्य कैसे संभव होगा? ऐसे में निविदा में मिनिमम टाईम लिमिट का मतलब ही क्या रह जाता है। अगर समय सीमा 6 माह रखनी ही थी तो टेंडर पहले लग जाना चाहिए था पर ऐसा नहीं हो सका। अब सवाल यह उठता है कि निर्धारित अवधि में काम पूरा नहीं कर पाने पर संबंधित ठेकेदार के खिलाफ सचमुच में कोई कार्रवाई होगी भी या कागजों में सवाल जवाब पूरे कर लिये जायेंगे। इस बारे में जानकारों की माने तो ऐसे अनेकों अवसरों पर ठेकेदारों महज कागजी नोटिस थमा कर अधिकारियों ने खुद ही उनके जवाब तैयार कर कार्रवाई के नाम पर कभी कुछ किया ही नहीं है। सिंचाई विभाग में वैसे भी जो हो जाये कम है क्योंकि अधिकांश कामों में अधिकारियों की हिस्सेदारी होती है यह अलग बात है किसी और के नाम काम होते है! इसके लिए यही बानगी पर्याप्त है कि बिल निकलने के साथ ही लाईनिंग टूटने लगती है अर्थात क्वालिटी पर केवल बातें ही होती हैं। जिले में चाहे जहां चले जाईये कुछेक सालों में हुए नहरों के काम हकीकत बया करते दिख जायेंगे। यह सब नीचे से ऊपर तक सभी जानते हैं, शिकायतें भी होती हैं और अधिकारी कार्य स्थल का निरीक्षण भी करते हैं लेकिन परिणाम सामने नहीं आते यहां तक की सरकार के मंत्री भी यहां आकर बड़ी बातें कर कार्यवाही का आश्वासन देकर लौट जाते हैं पर कहां कुछ होता है। जब परिणाम आने ही नहीं है तो भला हाथ पैर मारने का क्या फायदा जब किसानों से जुड़ी इस महत्वपूर्ण नहरों की व्यवस्था के हालात इतने नाजुक हैं तो आगे की बातों का क्या मतलब। जानकारों की माने तो सिंचाई विभाग में खारंग संभाग बहुचर्चित कार्यपालन अधिकारी आलोक अग्रवाल जो इन दिनों चॉपा आने की तैयारी में हैं का दिमाग नये फार्मूले तैयार करने में कुछ ज्यादा ही चलता है। संभव है अपने पराये के भेद की नियत से उसने मिनिमम टाईम लिमिट के सूत्र में खास अदाकारी निभाई है। वैसे चांपा स्थित जल संसाधन डिविजन पर अनेकों अधिकारियों की नजरें हैं क्योंकि पचास से भी अधिक ऐनीकट बनने हैं और भी अनेकों बड़े काम भी होने हैं। यह सब अपनी जगह है लेकिन थोड़े समय सीमा के औचित्य पर विचार होना ही चाहिए नहीं तो क्वालिटी के साथ कामों में प्रतिस्पर्धा नहीं होने से विभाग को अतिरिक्त हानि उठानी पड़े तो आश्चर्य जैसा नहीं होगा।

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

काडा नाली…….बढी कमाई काली


काडा नाली…….बढी कमाई काली
जल संसाधन विभाग के लिए काडा नाली संजीवनी बन चुका है पुराने जख्म अभी भरे नहीं कि नये बंदरबॉट से लाल हो रहे अधिकारियों को नयी पौध तैयार हो गयी है। पुराने मामले में शिकायत राज्यपाल तक को गयी जांच का आदेश हुआ तत्कालीन ई. ई. अवस्थी सस्पेंड भी हुए पर बाकियों का बाल बांका नहीं हुआ। उस समय के एस डी ओ आज ई ई है और पुराने अनुभवों का पूरा लाभ जल संसाधन के तीनों डिवीजन जांजगीर चांपा व सक्ती के अपने अधीनस्थों को पहुंचा रहे हैं
केन्द्रीय परियोजना के तहत किसानों को टेल एरिया तक पानी देने की महत्वाकांक्षी नाली निर्माण योजना भष्ट्राचार की भेंट चढ़ गयी। पिछले बार पानी पंचायतों के माध्यम से छोटे और मझोले किसानों के लिए लगभग 17 करोड़ की लागत में जिले के विभिन्न विकासखण्डों में खेतों से गुजरने वाली काड़ा नाली का निर्माण किया गया था। आज मात्र दो साल बाद इनमें से एक भी नाली का अस्तित्व नहीं है। वहीं काम की कमी से जुझ रहे डिवीजनों में अभियंताओं को संजीवनी देने के लिए पुरानी योजना की शेष राशि से फिर वहीं खेल आरंभ हो गया। विभाग ने जिले के प्रत्येक विकासखण्डों में एक-एक करोड़ की स्वीकृति दे दी है और इसके पहले की आपत्ति व आरोपों का सिलसिला आरंभ हो निर्माण आरंभ कर पैसों का उपयोग दर्शाने की प्रक्रिया तीव्रतम गति से पूरी की जा रही है।
गौरतलब बात है कि पिछली बार आपत्तियों व आरोपों के चलते राज्यपाल से जांच के आदेश हुए थे।  तब तक जिले में 17 करोड़ के काम पूर्ण कर लिये गये थे। जांच की लंबी व उबाऊ प्रक्रिया में इंदोर और दिल्ली से जांच एजेंसियों के अधिकारी भी चक्कर लगा गये थे। इन सबके परिणाम स्वरूप तत्कालीन ई ई अवस्थी को सस्पेंड कर दिया गया था। आज श्री अवस्थी भी सरकारी सेवा का आनंद ले रहे हैं। वहीं इसमें शामिल एस डी ओ पदोन्नति पा प्रदेश के अन्य स्थानों पर प्रभारी ई ई की भूमिका निबाह रहे है। इनमें से किसी एक को भी इस जांच का रंच मात्र असर नहीं हुआ है। उस समय काडा नाली निर्माण से जुड़े सब इंजीनियरों में से अधिकांश ने सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरण करा लिया था। वे आज भी पूरे अधिकार से सरकारी सेवा का लाभ उठा रहे हैं।
दो करोड़ की ट्रबल शूटिंग
उस समय काडा नाली निर्माण में घोटाला सबकी जुंबा पर था। इसके साथ ही ट्रबल शूटिंग शब्द भी जनता का खूब भाया। सूत्रों की माने तो इस दौरान विभागीय चाणक्यों ने दो करोड़ रूपये का फंडा सिर्फ ऐसे लोगों को देने के लिए अलग से बना रखा था जो भष्ट्राचार के बारे में शिकायत करते थे। सिर्फ शिकायतकर्ताओं के लिए 2 करोड़ देने वालों ने घोटाले की किन सीमाओं को पार किया होगा यह कल्पना से परे है सूत्रों की माने इसी दो करोउ़ का चमत्कार था कि सफेद कपड़ों पर दाग नहीं लगा और सभी अधिकारी सुरक्षित रहे।
नाली निर्माण में उस किसान की लिखित मंजूरी आवश्यक थी जिसके खेत में नाली बनानी है। इसके साथ ही किसानों से कुछ प्रतिशत नगद या मजदूरी के रूप में विभाग को वसूल करना था। इस सारी प्रक्रिया में फर्जीवाड़े से किसानों के हस्ताक्षर घर में बैठकर बनाये गये किसानों की रकम भी जमा की गयी व किसानों द्वारा मजदूरी भी दिखाई गयी, इस सारे खेल में पानी पंचायत के सदस्यों, नहर पटवारियों ने जमकर हिस्सेदारी वसूली।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

तो किसान आवाज क्यों लगा रहे हैं वर्धा पावर प्लाँट के प्रबंधन को

नरियरा वर्धा पावर प्लॉट को किसानों ने हिदायत दी,वायदे पूरे करे नहीं तो उनसे बुरा कोई नहीं होगा

जॉजगीर जिले के पॉवर प्लॉट पर शोषण का आरोप
अपनी पर उतर आये किसानों ने अब वर्धा पावर प्लॉट  ठीक कर ही दम लेने का ऐलान किया है। उन्होंने अपनी ग्यारह सूत्रीय मांगों के लिए वर्धा प्रबंधन को पखवाड़े भर का समय तो दे दिया है लेकिन यह हिदायत भी दी है कि निश्चित अवधि में बात नहीं बनी तो उनसे बुरा कोई नहीं होगा। नरियरा और तरौद के किसानों का कहना है वर्धा प्लॉट पहले किए वायदे पूरे करे अर्थात जिसकी जमीन कंपनी ने ली है उस परिवार के सदस्य को नौकरी पर रखे और जमीन अधिग्रहण की कानूनी प्रक्रिया पूर्ण हुए बिना उस पर किसी तरह का काम शुरू न करे।
ग्रामीण उन नेताओं पर भी भड़के हुए है जिन्होंने कंपनी के लिए पैरोकार की भूमिका निभाते हुए उद्योग से क्षेत्र के विकास की बड़ी-बड़ी बातें करते हुए किसानों से किए वायदे कंपनी की ओर से पूरे कराने की कसम ली थी  जो अब दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। पिछले दिनों की बात है जब बैठक कर किसानों ने कंपनी के क्रियाकलापों पर एतराज जताते हुए उसकीू मनमानी पर रोक लगाने का फैसला कर उसके अकलतरा स्थित दफ्तर में जा धमके थे। किसानों की बड़ी संख्या और आक्रोश को देखते हुए घबराये वर्धा प्रबंधन के लोगों ने उनके सामने आने की हिम्मत नहीं की पर बिना किसी बात चीत के वापस नहीं लौटने के किसानों की जिद्द के आगे मजबूर कंपनी को समझ में नहीं आ रहा था कि वह ग्रामीणों से किस तरह निपटे? पहला दिन तो किसी तरह निकल गया पर दूसरे दिन और बड़ी संख्या में अकलतरा पहुंचे ग्रामीणों के आगे उसकी एक न चली और उनसे बात चीत को तैयार होना पड़ा। वर्धा पावर की ओर से हैदराबाद से आये हुए के. एस. के. ग्रुप के प्रशासक के. के. नायर से किसानों की लंबी चर्चा हुई। इस बारे में वर्धा प्रबंधन कुछ भी जानकारी देने से बच रहा है लेकिन किसानों की माने तो श्री नायर ने ग्रामीणों की मांगों को स्वीकारते हुए उनसे एक पखवाड़े का समय मांगा है। आंदोलनकारी किसनों की आगे की रणनीति क्या होगी इसका अभी खुलासा नहीं हुआ है लेकिन एक बात तय है प्लॉंट की मनमानी ग्रामीण नहीं चलनेे देंगे इसके लिए वे नियमित बैठकें कर रहे हैं। दूसरी ओर आश्वासन के सहारे काम निकालने की सोच रखने वाले पावर प्लांॅट की ओर से यह कोशिश संभव है कि किसानों के बीच  फूट डालकर  उन्हें कमजोर किया जा सके। हालांकि अपनी योजना में किसान इससे निपटने की तैयारी कर रहे हैं।
अकलतरा के नरियरा और तरौद में वर्धा पावर प्लॉंट के प्रस्ताव के समय से ही लोगों  ने इसका विरोध शुरू कर दिया था लेकिन राजनीति और प्रशासन को साधने में कामयाब पावर प्लांॅट ने किसानों को बहला फुसलाकर न केवल उन्हें जमीन के लिए राजी कर लिया बल्कि नेतागीरी करने वाले किसानों को  औसतन उनके जमीन की ज्यादा कीमत देकर उन्हें चुप करने का काम किया। प्लॉंट ने एक बड़ी होशियारी यह भी की है कि प्रभावित किसानों के परिवार से एक-एक सदस्य को नौकरी पर रखने का कोई लिखित करार नहीं किया है इसी तरह और भी बहुत से आश्वासन मौखिक ही है। अर्थात ग्रामीणों के छले जाने की संभावना अधिक है यह इसलिए है क्योंकि अब तक स्थापित संयंत्रों ने अपने वादे नहीं निभाये हैं कुछेक ने किसान के परिवार से किसी को नौकरी दी भी है तो वह मजदूर की है अर्थात संयंत्र मनमर्जी के मालिक बने हुए हैं दूसरी ओर पर्यावरण के अधिकांश दावे कागजों में होने के कारण आस पास रहने वालों की जिंदगी नरक से कम नहीं है।
विकास में सहभागी होने के संयंत्र के दावे भी खोखले ही हैं इसकी बानगी चंापा के आस पास लगे कारखाने है जिन्होंने बताने के लिए थोड़ा बहुत जरूर खर्च किया है लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा की कहावत जैसा है। मजे की बात यह है लोकतंत्र का वह चौथा स्तंभ जिस पर समाज को दिशा देकर बेहतर दशा तैयार करने की जिम्मेदारी है वह भी बड़े संयंत्रों के पक्ष में न सही पर विरोध करने से बचता है जिसका भरपूर फायदा गरीबों को लूटने में उठाने वाले इन संयंत्रों पर प्रशासन और राजनेता भी कुछ कहने से इस तरह बचते हैं मानों उनका भविष्य कारखानों में तय होता है! जानकारों की माने तो वर्धा पावर प्लाँट ने चाहे जो किया है उसने किसानों की जमीन की प्रकृति बदलने का खेल तो खेला ही है किसानों को नियमानुसार मुआवजा राशि भी नहीं दी गई है और तो और पर्यावरण से जुड़े अनेक तथ्यों को छिपाया है। सूत्रों की मानें तो हकीकत सामने आने से रोकने के लिए उसने अनेकों को कई तरीकों से उपकृत किया है।
इस बात में वजन मालूम होता है क्योंकि जिन लोगों ने प्रारंभिक दौर में मुखालफत शुरू की थी वे मौन है और जिन जनप्रतिनिधियों पर अच्छे बुरे के लिए सामने आने की जिम्मेदारी है वे तथ्यों से इस तरह आंखे फे र रहे है मानों सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। आश्चर्य तो तब होता है जब विधानसभा में गुंजने वाली आवाज अपने ही क्षेत्र में इस तरह खामोश रहती है जैसे उसकी कोई कीमत ही न हो? मतलब संबंधित क्षेत्र के विधायक से है वे शायद यह नहीं सोचते हैं कि कुर्सी न रहने पर यही कंपनी के लोग उनसे मिलने को तैयार होंगे भी कहना मुश्किल है।
वर्धा पावर प्लाँट के प्रबंधन की माने तो वे सब कुछ कानूनी दायरे में रह कर रहे हैंं और किसानों के हित उसके लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि उसके खिलाफ किसान आवाज क्यों लगा रहे हैं। पिछले दिनों किसानों ने उन्हें बात चीत के लिए मजबूर किया तो उनकी ओर से मांगे स्वीकार ली गई पर यह जानकारी अखबार वालों ने उनसे चाही तो प्रबंधन के लोगों ने एक दूसरे पर बात टालते हुए कुछ बताना जरूरी नहीं समझा। पंकज त्रिवेदी ने सी एस आर के प्रभारी श्री ओझा से संपर्क के लिए कहा और उनसे बात चीत की कोशिश की गई तो उनका सीधा सा जवाब था मीडिया से वे बात नहीं करेंगे जो पूछना है पंकज त्रिवेदी से ही संभव है। सवाल यह उठता है वे सही है तो उन्हें पक्ष रखने में डर क्यों होना चाहिए फिर ऐसा नहीं है कि प्रबंधन के छिपाने से भला कोई ऐसी घटना या जानकारी छिप जायेगी जो खुद में सार्वजनिक है।
नरियरा वर्धा पावर प्लॉट को किसानों ने हिदायत दी,वायदे पूरे करे नहीं तो उनसे बुरा कोई नहीं होगा

जॉजगीर जिले के पॉवर प्लॉट पर शोषण का आरोप
अपनी पर उतर आये किसानों ने अब वर्धा पावर प्लॉट को ठीक कर ही दम लेने का ऐलान किया है। उन्होंने अपनी ग्यारह सूत्रीय मांगों के लिए वर्धा प्रबंधन को पखवाड़े भर का समय तो दे दिया है लेकिन यह हिदायत भी दी है कि निश्चित अवधि में बात नहीं बनी तो उनसे बुरा कोई नहीं होगा। नरियरा और तरौद के किसानों का कहना है वर्धा प्लॉट पहले किए वायदे पूरे करे अर्थात जिसकी जमीन कंपनी ने ली है उस परिवार के सदस्य को नौकरी पर रखे और जमीन अधिग्रहण की कानूनी प्रक्रिया पूर्ण हुए बिना उस पर किसी तरह का काम शुरू न करे।
ग्रामीण उन नेताओं पर भी भड़के हुए है जिन्होंने कंपनी के लिए पैरोकार की भूमिका निभाते हुए उद्योग से क्षेत्र के विकास की बड़ी-बड़ी बातें करते हुए किसानों से किए वायदे कंपनी की ओर से पूरे कराने की कसम ली थी जो अब दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। पिछले दिनों की बात है जब बैठक कर किसानों ने कंपनी के क्रियाकलापों पर एतराज जताते हुए उसकीू मनमानी पर रोक लगाने का फैसला कर उसके अकलतरा स्थित दफ्तर में जा धमके थे। किसानों की बड़ी संख्या और आक्रोश को देखते हुए घबराये वर्धा प्रबंधन के लोगों ने उनके सामने आने की हिम्मत नहीं की पर बिना किसी बात चीत के वापस नहीं लौटने के किसानों की जिद्द के आगे मजबूर कंपनी को समझ में नहीं आ रहा था कि वह ग्रामीणों से किस तरह निपटे? पहला दिन तो किसी तरह निकल गया पर दूसरे दिन और बड़ी संख्या में अकलतरा पहुंचे ग्रामीणों के आगे उसकी एक न चली और उनसे बात चीत को तैयार होना पड़ा। वर्धा पावर की ओर से हैदराबाद से आये हुए के. एस. के. ग्रुप के प्रशासक के. के. नायर से किसानों की लंबी चर्चा हुई। इस बारे में वर्धा प्रबंधन कुछ भी जानकारी देने से बच रहा है लेकिन किसानों की माने तो श्री नायर ने ग्रामीणों की मांगों को स्वीकारते हुए उनसे एक पखवाड़े का समय मांगा है। आंदोलनकारी किसनों की आगे की रणनीति क्या होगी इसका अभी खुलासा नहीं हुआ है लेकिन एक बात तय है प्लॉंट की मनमानी ग्रामीण नहीं चलनेे देंगे इसके लिए वे नियमित बैठकें कर रहे हैं। दूसरी ओर आश्वासन के सहारे काम निकालने की सोच रखने वाले पावर प्लांॅट की ओर से यह कोशिश संभव है कि किसानों के बीच फूट डालकर उन्हें कमजोर किया जा सके। हालांकि अपनी योजना में किसान इससे निपटने की तैयारी कर रहे हैं।
अकलतरा के नरियरा और तरौद में वर्धा पावर प्लॉंट के प्रस्ताव के समय से ही लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया था लेकिन राजनीति और प्रशासन को साधने में कामयाब पावर प्लांॅट ने किसानों को बहला फुसलाकर न केवल उन्हें जमीन के लिए राजी कर लिया बल्कि नेतागीरी करने वाले किसानों को औसतन उनके जमीन की ज्यादा कीमत देकर उन्हें चुप करने का काम किया। प्लॉंट ने एक बड़ी होशियारी यह भी की है कि प्रभावित किसानों के परिवार से एक-एक सदस्य को नौकरी पर रखने का कोई लिखित करार नहीं किया है इसी तरह और भी बहुत से आश्वासन मौखिक ही है। अर्थात ग्रामीणों के छले जाने की संभावना अधिक है यह इसलिए है क्योंकि अब तक स्थापित संयंत्रों ने अपने वादे नहीं निभाये हैं कुछेक ने किसान के परिवार से किसी को नौकरी दी भी है तो वह मजदूर की है अर्थात संयंत्र मनमर्जी के मालिक बने हुए हैं दूसरी ओर पर्यावरण के अधिकांश दावे कागजों में होने के कारण आस पास रहने वालों की जिंदगी नरक से कम नहीं है।
विकास में सहभागी होने के संयंत्र के दावे भी खोखले ही हैं इसकी बानगी चंापा के आस पास लगे कारखाने है जिन्होंने बताने के लिए थोड़ा बहुत जरूर खर्च किया है लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा की कहावत जैसा है। मजे की बात यह है लोकतंत्र का वह चौथा स्तंभ जिस पर समाज को दिशा देकर बेहतर दशा तैयार करने की जिम्मेदारी है वह भी बड़े संयंत्रों के पक्ष में न सही पर विरोध करने से बचता है जिसका भरपूर फायदा गरीबों को लूटने में उठाने वाले इन संयंत्रों पर प्रशासन और राजनेता भी कुछ कहने से इस तरह बचते हैं मानों उनका भविष्य कारखानों में तय होता है! जानकारों की माने तो वर्धा पावर प्लाँट ने चाहे जो किया है उसने किसानों की जमीन की प्रकृति बदलने का खेल तो खेला ही है किसानों को नियमानुसार मुआवजा राशि भी नहीं दी गई है और तो और पर्यावरण से जुड़े अनेक तथ्यों को छिपाया है। सूत्रों की मानें तो हकीकत सामने आने से रोकने के लिए उसने अनेकों को कई तरीकों से उपकृत किया है।
इस बात में वजन मालूम होता है क्योंकि जिन लोगों ने प्रारंभिक दौर में मुखालफत शुरू की थी वे मौन है और जिन जनप्रतिनिधियों पर अच्छे बुरे के लिए सामने आने की जिम्मेदारी है वे तथ्यों से इस तरह आंखे फे र रहे है मानों सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। आश्चर्य तो तब होता है जब विधानसभा में गुंजने वाली आवाज अपने ही क्षेत्र में इस तरह खामोश रहती है जैसे उसकी कोई कीमत ही न हो? मतलब संबंधित क्षेत्र के विधायक से है वे शायद यह नहीं सोचते हैं कि कुर्सी न रहने पर यही कंपनी के लोग उनसे मिलने को तैयार होंगे भी कहना मुश्किल है।
वर्धा पावर प्लाँट के प्रबंधन की माने तो वे सब कुछ कानूनी दायरे में रह कर रहे हैंं और किसानों के हित उसके लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि उसके खिलाफ किसान आवाज क्यों लगा रहे हैं। पिछले दिनों किसानों ने उन्हें बात चीत के लिए मजबूर किया तो उनकी ओर से मांगे स्वीकार ली गई पर यह जानकारी अखबार वालों ने उनसे चाही तो प्रबंधन के लोगों ने एक दूसरे पर बात टालते हुए कुछ बताना जरूरी नहीं समझा। पंकज त्रिवेदी ने सी एस आर के प्रभारी श्री ओझा से संपर्क के लिए कहा और उनसे बात चीत की कोशिश की गई तो उनका सीधा सा जवाब था मीडिया से वे बात नहीं करेंगे जो पूछना है पंकज त्रिवेदी से ही संभव है। सवाल यह उठता है वे सही है तो उन्हें पक्ष रखने में डर क्यों होना चाहिए फिर ऐसा नहीं है कि प्रबंधन के छिपाने से भला कोई ऐसी घटना या जानकारी छिप जायेगी जो खुद में सार्वजनिक है।