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सोमवार, 26 अप्रैल 2010

तो किसान आवाज क्यों लगा रहे हैं वर्धा पावर प्लाँट के प्रबंधन को

नरियरा वर्धा पावर प्लॉट को किसानों ने हिदायत दी,वायदे पूरे करे नहीं तो उनसे बुरा कोई नहीं होगा

जॉजगीर जिले के पॉवर प्लॉट पर शोषण का आरोप
अपनी पर उतर आये किसानों ने अब वर्धा पावर प्लॉट  ठीक कर ही दम लेने का ऐलान किया है। उन्होंने अपनी ग्यारह सूत्रीय मांगों के लिए वर्धा प्रबंधन को पखवाड़े भर का समय तो दे दिया है लेकिन यह हिदायत भी दी है कि निश्चित अवधि में बात नहीं बनी तो उनसे बुरा कोई नहीं होगा। नरियरा और तरौद के किसानों का कहना है वर्धा प्लॉट पहले किए वायदे पूरे करे अर्थात जिसकी जमीन कंपनी ने ली है उस परिवार के सदस्य को नौकरी पर रखे और जमीन अधिग्रहण की कानूनी प्रक्रिया पूर्ण हुए बिना उस पर किसी तरह का काम शुरू न करे।
ग्रामीण उन नेताओं पर भी भड़के हुए है जिन्होंने कंपनी के लिए पैरोकार की भूमिका निभाते हुए उद्योग से क्षेत्र के विकास की बड़ी-बड़ी बातें करते हुए किसानों से किए वायदे कंपनी की ओर से पूरे कराने की कसम ली थी  जो अब दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। पिछले दिनों की बात है जब बैठक कर किसानों ने कंपनी के क्रियाकलापों पर एतराज जताते हुए उसकीू मनमानी पर रोक लगाने का फैसला कर उसके अकलतरा स्थित दफ्तर में जा धमके थे। किसानों की बड़ी संख्या और आक्रोश को देखते हुए घबराये वर्धा प्रबंधन के लोगों ने उनके सामने आने की हिम्मत नहीं की पर बिना किसी बात चीत के वापस नहीं लौटने के किसानों की जिद्द के आगे मजबूर कंपनी को समझ में नहीं आ रहा था कि वह ग्रामीणों से किस तरह निपटे? पहला दिन तो किसी तरह निकल गया पर दूसरे दिन और बड़ी संख्या में अकलतरा पहुंचे ग्रामीणों के आगे उसकी एक न चली और उनसे बात चीत को तैयार होना पड़ा। वर्धा पावर की ओर से हैदराबाद से आये हुए के. एस. के. ग्रुप के प्रशासक के. के. नायर से किसानों की लंबी चर्चा हुई। इस बारे में वर्धा प्रबंधन कुछ भी जानकारी देने से बच रहा है लेकिन किसानों की माने तो श्री नायर ने ग्रामीणों की मांगों को स्वीकारते हुए उनसे एक पखवाड़े का समय मांगा है। आंदोलनकारी किसनों की आगे की रणनीति क्या होगी इसका अभी खुलासा नहीं हुआ है लेकिन एक बात तय है प्लॉंट की मनमानी ग्रामीण नहीं चलनेे देंगे इसके लिए वे नियमित बैठकें कर रहे हैं। दूसरी ओर आश्वासन के सहारे काम निकालने की सोच रखने वाले पावर प्लांॅट की ओर से यह कोशिश संभव है कि किसानों के बीच  फूट डालकर  उन्हें कमजोर किया जा सके। हालांकि अपनी योजना में किसान इससे निपटने की तैयारी कर रहे हैं।
अकलतरा के नरियरा और तरौद में वर्धा पावर प्लॉंट के प्रस्ताव के समय से ही लोगों  ने इसका विरोध शुरू कर दिया था लेकिन राजनीति और प्रशासन को साधने में कामयाब पावर प्लांॅट ने किसानों को बहला फुसलाकर न केवल उन्हें जमीन के लिए राजी कर लिया बल्कि नेतागीरी करने वाले किसानों को  औसतन उनके जमीन की ज्यादा कीमत देकर उन्हें चुप करने का काम किया। प्लॉंट ने एक बड़ी होशियारी यह भी की है कि प्रभावित किसानों के परिवार से एक-एक सदस्य को नौकरी पर रखने का कोई लिखित करार नहीं किया है इसी तरह और भी बहुत से आश्वासन मौखिक ही है। अर्थात ग्रामीणों के छले जाने की संभावना अधिक है यह इसलिए है क्योंकि अब तक स्थापित संयंत्रों ने अपने वादे नहीं निभाये हैं कुछेक ने किसान के परिवार से किसी को नौकरी दी भी है तो वह मजदूर की है अर्थात संयंत्र मनमर्जी के मालिक बने हुए हैं दूसरी ओर पर्यावरण के अधिकांश दावे कागजों में होने के कारण आस पास रहने वालों की जिंदगी नरक से कम नहीं है।
विकास में सहभागी होने के संयंत्र के दावे भी खोखले ही हैं इसकी बानगी चंापा के आस पास लगे कारखाने है जिन्होंने बताने के लिए थोड़ा बहुत जरूर खर्च किया है लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा की कहावत जैसा है। मजे की बात यह है लोकतंत्र का वह चौथा स्तंभ जिस पर समाज को दिशा देकर बेहतर दशा तैयार करने की जिम्मेदारी है वह भी बड़े संयंत्रों के पक्ष में न सही पर विरोध करने से बचता है जिसका भरपूर फायदा गरीबों को लूटने में उठाने वाले इन संयंत्रों पर प्रशासन और राजनेता भी कुछ कहने से इस तरह बचते हैं मानों उनका भविष्य कारखानों में तय होता है! जानकारों की माने तो वर्धा पावर प्लाँट ने चाहे जो किया है उसने किसानों की जमीन की प्रकृति बदलने का खेल तो खेला ही है किसानों को नियमानुसार मुआवजा राशि भी नहीं दी गई है और तो और पर्यावरण से जुड़े अनेक तथ्यों को छिपाया है। सूत्रों की मानें तो हकीकत सामने आने से रोकने के लिए उसने अनेकों को कई तरीकों से उपकृत किया है।
इस बात में वजन मालूम होता है क्योंकि जिन लोगों ने प्रारंभिक दौर में मुखालफत शुरू की थी वे मौन है और जिन जनप्रतिनिधियों पर अच्छे बुरे के लिए सामने आने की जिम्मेदारी है वे तथ्यों से इस तरह आंखे फे र रहे है मानों सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। आश्चर्य तो तब होता है जब विधानसभा में गुंजने वाली आवाज अपने ही क्षेत्र में इस तरह खामोश रहती है जैसे उसकी कोई कीमत ही न हो? मतलब संबंधित क्षेत्र के विधायक से है वे शायद यह नहीं सोचते हैं कि कुर्सी न रहने पर यही कंपनी के लोग उनसे मिलने को तैयार होंगे भी कहना मुश्किल है।
वर्धा पावर प्लाँट के प्रबंधन की माने तो वे सब कुछ कानूनी दायरे में रह कर रहे हैंं और किसानों के हित उसके लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि उसके खिलाफ किसान आवाज क्यों लगा रहे हैं। पिछले दिनों किसानों ने उन्हें बात चीत के लिए मजबूर किया तो उनकी ओर से मांगे स्वीकार ली गई पर यह जानकारी अखबार वालों ने उनसे चाही तो प्रबंधन के लोगों ने एक दूसरे पर बात टालते हुए कुछ बताना जरूरी नहीं समझा। पंकज त्रिवेदी ने सी एस आर के प्रभारी श्री ओझा से संपर्क के लिए कहा और उनसे बात चीत की कोशिश की गई तो उनका सीधा सा जवाब था मीडिया से वे बात नहीं करेंगे जो पूछना है पंकज त्रिवेदी से ही संभव है। सवाल यह उठता है वे सही है तो उन्हें पक्ष रखने में डर क्यों होना चाहिए फिर ऐसा नहीं है कि प्रबंधन के छिपाने से भला कोई ऐसी घटना या जानकारी छिप जायेगी जो खुद में सार्वजनिक है।

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